MA Semester-1 Sociology paper-III - Social Stratification and Mobility - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।

उत्तर -

जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचार

जाति को भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण के अपरिवर्तनीय एवं बन्द स्वरूप की संज्ञा दी जाती है। इस तर्क के मूल आधार के रूप में हम जाति व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक जातियों के संस्तरणात्मक क्रम को पाते हैं। यह भी यथार्थ हैं कि अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में व्यक्ति जाति की प्रस्थिति अथवा अपनी जाति पहचान को परिवर्तित नहीं कर सकता। प्रत्येक जाति सामान्यतया एक व्यवसाय से सम्बद्ध है एवं यह अत्यन्त कठिन है कि एक व्यक्ति अपने जाति व्यवसाय को अस्वीकार कर नवीन व्यवसाय को ग्रहण कर ले। दूसरे शब्दों में यदि हम जाति व्यवस्था को कठोर प्रणाली के रूप में स्वीकार करें तो किसी भी व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त विकल्प नहीं है कि वह जन्म से प्राप्त जाति प्रस्थिति के द्वारा अपनी पहचान बनाये तथा जाति से सम्बद्ध व्यवसाय को ग्रहण करें। अन्य क्षेत्रों में वही उपलब्धियाँ व्यक्ति की अस्मिता को स्थापित करने का आधार नहीं बन सकती। भारतीय संविधि आयोग (इण्डियन स्टेट्यूटरी कमीशन 1930) के प्रतिवेदन में यह उल्लेख उपयुक्त ही है कि प्रत्येक हिन्दू आवश्यक रूप से अपने माता-पिता की जाति से सम्बद्ध है तथा उस जाति में यह अनिवार्य रूप से जीवन पर्यन्त बना रहता है। धन का संग्रह एवं योग्यता के उच्च स्तर के तत्व भी जाति प्रस्थिति को परिवर्तित नहीं कर सकते। अपनी जाति के बाहर विवाह सम्बन्ध या तो प्रतिबन्धित हैं या उन्हें पूर्णरूपेण हतोत्साहित किया जाता है। व्यवसाय का उल्लेख करते हुए इस प्रतिवेदन में कहा गया कि व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अथवा जाति व्यवस्था का अथवा एक इकाई के रूप में जाति का अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। परम्परागत व्यवस्था में व्यवसाय परिवर्तन का कोई भी प्रयास एवं व्यक्ति अथवा समूह द्वारा उच्च जाति की प्रस्थिति का दावा जाति प्रतिमानों का स्पष्ट उल्लंघन था अतः ऐसे किसी भी प्रयास का दमन किया जाता है। यह स्थिति जाति की सांस्कृतिक पवित्रता के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थी। इसके साथ ही जाति से सम्बद्ध व्यवसाय को भी धार्मिक स्वीकृति प्रदान की गयी थी। अतः जाति प्रतिमानों का उल्लंघन धर्म का उल्लंघन माना जाता था तथा अभियुक्त को जाति पंचायत द्वारा निर्धारित दण्ड दिया जाता था।

जाति स्तरीकरण की इस स्पष्ट कठोरता एवं व्यवसाय की अपील प्रकृति के बावजूद जाति व्यवस्था न तो कभी पूर्णरूपेण बन्द थी और न ही इसे वन में पूर्णरूपेण बन्द कहा जा सकता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि भारतीय जाति व्यवस्था है, कठोर प्रारूप के उपरान्त भी जाति में सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिशीलता की कुछ भावनाएं हमेशा से पायी जाती हैं। अनेक ऐतिहासिक घटना क्रमों एवं सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने जाति व्यवस्था के अन्तर्गत गतिशीलता को उत्पन्न किया है तथा इस गतिशीलता के प्रति सनाज की सहनशीलता भी रही है।

संस्कृतिकरण

प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया द्वारा जाति गतिशीलता के प्रारूप को एम श्रीनिवास ने प्रस्तुत किया है जिसे संस्कृतिकरण के रूप में जाना जाता है। इस प्रक्रिया में आवश्यक रूप से निम्न जातियों द्वारा ब्राह्मण जीवन शैली की नकल करने अथवा अनुकरण करने सम्बन्धी प्रयासों को सम्मिलित किया जाता है। एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार 'संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न जाति अथवा जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति रिवाज, कर्मकाण्ड़, विचारधारा अथवा पद्धति को परिवर्तित करता है। सरल रूप में हम यह कह सकते हैं कि जातियाँ जिन्हें जाति संस्तरण में अपेक्षाकृत निम्न पद प्राप्त हैं प्राय: उच्च जातियों के सांस्कृतिक पक्षों का अनुकरण करती हैं। इस अनुकरण के फलस्वरूप ये निम्न जातियाँ जाति संस्तरण में वर्तमान पद से उच्च पद का अथवा उच्च जातीय प्रस्थिति का दावा करती है।

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में निम्न जाति के सदस्य स्थानीय उच्च जाति की सापेक्षिक रूप से उच्च जीवन शैली के साथ न केवल प्रतिस्पर्धा का प्रयास करते हैं अपितु उनके सांस्कृतिक क्रियाकलापों एवं धार्मिक सांस्कारिक कृत्यों को स्वीकार कर उन्हें अपने व्यवहारं में प्रयुक्त करते हैं। इसके अतिरिक्त ये निम्न जातियाँ अधिकांश स्थितियों में प्रदूषित एवं निकृष्ट समझी जाने वाली क्रियाओं, जैसे—गोश्त खाना, चमड़े का कार्य, मृत जानवरों को एकत्रित करना, सुअर पालन, मदिरा सेवन इत्यादि का त्याग कर देती हैं। इन प्रयासों के द्वारा उर्ध्वगामी दिशा अथवा उच्च दिशा की तरफ गतिशीलता सम्भव हो जाती है। कुछ स्थितियों में ये निम्न जातियाँ शाकाहारी भोजन सम्बन्धी आदतों को सीखती हैं। ये आदतें सांस्कारिक शुचिता की प्रतीक हैं जिनके अपनाये जाने पर उच्च जाति के पद पर दावा करना सम्भव हो जाता है। उत्तर भारत में चमड़े का कार्य करने वाली चमार जाति, राजस्थान में भील तथा वाराणसी के निकट के खटीक इत्यादि जाति समूहों को यहाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

संस्कृतिकरण एक अत्यन्त मंद गति की प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत उर्ध्वागामी गतिशीलता के द्वारा कोई जाति वर्तमान जातीय पद से उच्च पद प्राप्त करती है। यद्यपि इस तथ्य का भी प्रेक्षण किया गया कि यदि जाति किसी भी माध्यम से आर्थिक अथवा राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर लेती है तो उच्च जाति प्रस्थिति का दावा करने से सम्बद्ध संस्कृतिकरण की प्रक्रिया तीव्र गति प्राप्त कर लेती है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में निवास करने वाली नौनिया जाति इसका ज्वलन्त उदाहरण है। नमक बनाने वाली इस जाति ने अपना आर्थिक शक्ति के आधार पर उच्च जाति प्रस्थिति का दावा किया एवं क्षत्रिय जाति का पद प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की।

पश्चिमीकरण

एम०एन० श्रीनिवास के मतानुसार, पश्चिमीकरण एक पूर्ण जटिल एवं बहुस्तरीय अवधारणा है। यह एक तरफ पश्चिमी प्रौद्योगिकी को सम्मिलित करती है वहीं दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक पद्धति एवं आधुनिक इतिहास विश्लेषण को सम्मिलित करती है। इसकी अस्थिर जटिलता इस तथ्य से ही प्रकट हो जाती है कि पश्चिमीकरण के विभिन्न पक्ष कभी तो सम्मिलित होकर किसी विशिष्ट प्रक्रिया को मजबूत बनाते हैं कभी उद्देश्यों के विपरीत हो जाते हैं और कभी-कभी एक-दूसरे के विपरीत भी हो जाते हैं। इस जटिलता के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने सुविधाओं को अपने नियंत्रण में लेने के लिए कुछ जातीय समूहों को अनुकूल अवसर प्रदान किये। अधिकांश भागों में ब्राह्मण व्यवसायी समूह जैसे पारसी एवं बनिया, खत्री एवं अरोड़ा, कोमती, चेतियार, कायस्थ एवं बेडियाज उन समूहों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपने हितों के विस्तार हेतु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का उपयोग किया। पश्चिमीकरण ने ऐसे अनेक क्षेत्रों में जो कि मुख्यत: जाति-स्वतंत्र थे, नवीन अवसर प्रदान किये। ऐसे क्षेत्रों में हम शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों की चर्चा कर सकते हैं। इन अवसरों ने अनेक निम्न जातियों को प्रोत्साहित किया कि वे उर्ध्वगामी जाति गतिशीलता हेतु संघर्ष करें। निम्न जातियों को चूँकि यह अहसास हो गया था कि संस्कृतिकरण अत्यन्त मन्द प्रक्रिया है तथा उन्हें उच्च जातियों के निकट लाने में अधिक सहायक नहीं है अतः इस उद्देश्य को शीघ्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। इस प्रेरणा ने अनेक उपजातियों को एक-दूसरे के अत्यन्त निकट किया, जाति संगठनों का निर्माण हुआ, जाति कल्याण से सम्बद्ध पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, छात्रवृत्तियों हेतु धन एकत्रित हुआ, जाति के विद्यार्थियों के आवास हेतु छात्रावासों का निर्माण हुआ तथा जाति सम्बन्धी प्रथाओं में सुधार हुआ। इन समस्त प्रयासों का एकमात्र उद्देश्य उच्च जाति प्रस्थिति प्राप्त करना था।

इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में छोटे स्तर पर अनेक आन्दोलन हुए। परन्तु इन सब आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य उस गतिशीलता को अर्जित करना था जिससे वे जातीय समूह प्रस्थिति उच्च कर सकें जो सदियों से ब्राह्मणों से पिछड़े हुए थे। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु इन समूहों में यह इच्छा व्यापक रूप से उत्पन्न हुई कि अंग्रेजी में उच्च शिक्षा, सरकारी क्षेत्रों में रोजगार तथा नवीन राजनीतिक प्रक्रियाओं में सहभागिता के तत्वों को प्राप्त किया जाए जो कि पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सम्भव था।

क्षेत्रीयकरण

जाति गतिशीलता के ब्राह्मण प्रारूप अथवा सांस्कृतिक प्रारूप के समकक्ष डी०एफ० पोकाक ने क्षेत्रिय प्रारूप का उल्लेख किया है। पोकाक के मतानुसार, ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ लोगों ने 'ब्राह्मण प्रारूप' के स्थान पर 'राजा के प्रारूप' का अनुकरण किया। यह अनुकरण राजा के व्यक्तियों पर व्यापक प्रभाव के कारण सम्भव हो सका। पोकाक के अनुसार,किसी समय अथवा स्थान पर राजा के प्रारूप का उस क्षेत्र की गैर-ब्राह्मण जातियों द्वारा अनुकरण उस क्षेत्र की प्रभुत्वशाली राजनीतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। सुरजीत सिन्हा ने भी मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में समान प्रक्रिया का उल्लेख किया है। इस क्षेत्र में जनजातियों ने 'राजपूतों' की जीवन पद्धति का अनुकरण किया ताकि स्थानीय संस्तरण में वे अपनी जातीय प्रस्थिति को उच्च बना सकें। स्टीफन एवं बर्नाट ने भी पोकाक तथा सिन्हा के मतों से सहमति व्यक्त की है। बर्नाट का मत है कि दक्षिण भारत में ब्राह्मण प्रारूप के अतिरिक्त 'राजा का प्रारूप' भी अस्तित्व में है। ये दोनों प्रारूप उच्च जाति प्रस्थिति की आकांक्षा करने वाले जाति समूहों के लिए संदर्भ प्रारूप का कार्य करते हैं।

के०एम० पाणिकर जैसे इतिहासकारों एवं अन्य विद्वानों ने ऐतिहासिक साक्ष्यों की सहायता से ' क्षत्रीयकरण' की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है। पाणिकर की स्पष्ट मान्यता है कि पिछले दो हजार वर्षों के भारतीय इतिहास में क्षत्रिय जैसी कोई 'विशुद्ध' जाति नहीं पायी गयी है। पाणिकर की दृष्टि में पांचवीं शताब्दी ई०पू० में नन्द वंश अन्तिम विशुद्ध क्षत्रिय वंश था परन्तु इसके पश्चात अनेक निम्न जातियों ने स्वयं को क्षत्रिय जाति से सम्बद्ध किया अथवा क्षत्रिय होने का दावा किया क्योंकि इन निम्न जातियों ने अपनी सैन्य क्षमता के आधार पर तथा राजनीतिक शक्ति के माध्यम से भूमि के एक खण्ड पर आधिपत्य स्थापित कर लिया।

अधोगामी जाति - गतिशीलता

कुछ अवसर हैं जिनके माध्यम से संस्तरण प्रणाली एवं क्रम विन्यास के द्वारा निर्देशित जाति प्रणाली में ऊर्ध्वगामी प्रगतिशीलता सम्भव है। ठीक इसी प्रकार जाति व्यवस्था में अधोगामी सामाजिक गतिशीलता भी सम्भव है यद्यपि यह प्रक्रिया कभी-कभी उत्पन्न होती है एवं यह अत्यन्त मन्द भी है। इस संदर्भ में एस०एल० कालिया ने यह विवेचन किया है कि किस प्रकार जनजातीयकरण की प्रक्रिया उत्तर प्रदेश के जौनसार बाबर एवं मध्य प्रदेश के बस्तर क्षेत्र में क्रियाशील है। कालिया के अनुसार, जब उच्च जाति के हिन्दू जनजातीय जनसंख्या वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं तो वे कुछ स्थितियों में जनजातियों के लोकाचार, संस्कार एवं विश्वासों को ग्रहण कर लेते हैं जो उनके स्वयं के लोकाचारों, संस्कारों एवं विश्वासों के विपरीत भी हो सकते हैं। कालिया ने उदाहरणों द्वारा इस तर्क को प्रस्तुत किया है | जौनसार- बाबर उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में निवास करने वाले ब्राह्मण मांसाहारी भोजन करते हैं, मदिरापान करते हैं एवं इस क्षेत्र की पहाड़ी स्त्रियों से सम्पर्क रखते हैं, उनके धार्मिक संस्कारों अथवा समारोहों में सहभागिता करते हैं एवं धीरे-धीरे जनजातीय जीवन पद्धति को अपना लेते हैं। इस उदाहरण में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया संस्कृतिकरण के बिल्कुल विपरीत है। बरूआ ने जनजातीय उड़ीसा में तीन शिल्पी जातियों के संदर्भ में जनजातीयकरण की प्रक्रिया की चर्चा की है। इनका कथन है कि लोहार, कुम्हार एवं जुलाहा नामक कम से कम तीन जातियाँ, जो दक्षिण उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्रों में निवास करती हैं, अनेक वर्षों से अपने जनजातीय स्वामियों की सेवा कर रही हैं। इन जातियों ने धीरे-धीरे जीवन में जनजातीय पद्धतियों को अपनी जीवन पद्धति का भाग बना लिया है। एन०के० बोस का इस संदर्भ में तर्क है कि संस्कृति का प्रवाह आर्थिक दृष्टि से प्रभुत्वशील समूह की तरह उस समय होता है जब दोनों किन्हीं ऐतिहासिक परिस्थितियों अथवा कारणों वश विस्तृत उत्पादन संगठन को निर्मित करते हैं। अधोगामी गतिशीलता का उल्लेख मजूमदार ने भी किया है जो कि 'विसंस्कृतिकरण' का उल्लेख करते हैं। विसंस्कृतिकरण का अर्थ भी पूर्व उल्लिखित समान प्रघटनाओं को अभिव्यक्त करता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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